अमेरिकी प्रशासन के कई प्रभावशाली लोगों ने हाल के दिनों में पाकिस्तान को दी जा रही अमेरिकी सहायता पर प्रश्न उठा के संकेत दिया है कि दुनिया का सबसे ताकतवर देश अपनी एशियाई नीति में बदलाव लेन को तैयार है। बुश प्रशासन से जुड़े कई लोगों ने शंका जताई है कि एफ-१६ सहित कई अन्य सहायतायें आतंकवादियों के बजाय भारत से लड़ाई कि तैयारियों में काम ली जा रही हैं।
याद रहे कि कोई चालीस वर्षों से भी अधिक लंबे काल से अमेरिका पाकिस्तान को भारी पैमाने पर आर्थिक और सामरिक मदद करता रहा है। इसमें से ज्यादातर धन पाकिस्तान को अनुदान के रूप में मिलता रहा है।
इसके उलट जवाहर लाल नेहरू की रूस परस्त नीतियों ने न सिर्फ़ अमेरिका को विरोधियों के खेमे में खड़ा कर दिया था वरन रूस से आने वाली 'सहायता' आने वाली सहायता की भी हम मित्रता के नाम पर भारी कीमतें चुकाते रहे हैं।
तो क्या अमेरिका अब इस एशिआई क्षेत्र में नए समीकरण बनाने की सोच रहा है?
इस प्रश्न का जवाब देने से पहले हमें बदले हालातों पर भी नजर डालनी चाहिए। अतीत का सोवियत संघ अब टूट कर बिखर चुका है। लाख कोशिशों के बावजूद पाकिस्तान एक आर्थिक शक्ति नहीं बन पाया है। भारत का पड़ोसी चीन कभी भी अमेरिका परस्त नहीं हो सकता। ऐसी दशा में अमेरिका को इस क्षेत्र में अपने अनुकूल माहौल बनाये रखने में भारत से मित्रता के सिवा कोई दूसरा तत्वा कारगर नहीं हो सकता।
भारत को आणविक समझौते के तहत मदद देना अमेरिका की रणनीतिक मजबूरी है। कोई ताज्जुब नहीं की अमेरिकी नीति निर्माता इस मजबूरी का लाभ उठाते हुए इसे स्वेच्छिक नीति का चोला पहना देवें। कम्युनिस्टों का आणविक समझौते का विरोध करने की वजह भी यही है। वे भारत की जगह सदा से चीन के हितों की रक्षा करते रहे हैं।
भाजपा का समझौते का विरोध करना दिखाता है की यह पार्टी सिर्फ़ विरोध के लिए विरोध करने की नादानी से उठ नहीं पा रही है। हाल के दिनों में इस मुद्दे पर पार्टी के रुख में नरमी जताती है की भाजपा वास्तविकता को स्वीकारने लगी है।
राजनीती में कोई किसी का स्थाई मित्र या शत्रु नहीं होता। भारत को एक मौका मिला है की वह अमेरिका की नीतियों को प्रभावित करते हुए अपने क्षेत्र में अपनी पकड़ मजबूत कर ले।
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