राजस्थान सरकार के तहत काम करनेवाले नौकर नाराज हैं कि नहीं इस बारे में काफी कयास लगाये जा रहे हैं। यह भी कहा जा रहा की उनकी नाराजगी मौजूदा सरकार को भारी पड़ सकती है। लेकिन इन नौकरों का बोझ उठानेवाली और इनकी धौंस सहनेवाली जनता का हाल कोई पूछनेवाला नहीं है। केन्द्र ने वेतनमान बढ़ा दिया है तो देर सवेर सारी राज्य सरकारों को भी ऐसा करना ही पड़ेगा। नतीजतन महंगाई बेतहाशा बढ़ेगी। बढ़ रही है। चुनाव सामने है। इसलिए अपनी-अपनी गद्दियाँ सुनिश्चित करने कि होड़ में आर्थिक सुव्यवस्था रूपी द्रोपदी कि चीर खींच के नंगा किया जा रहा है। और जिम्मेदार कहे जानेवाले लोग भीष्म पितामह कि तरह चुप बैठे हैं।
जब नौकर मालिक बन जाते हैं तो फ़िर यही होता है। नेहरू ने रूस कि तर्ज पर जो सरकारी तंत्र खड़ा किया वह कैंसर कि तरह समाज को खाए जा रहा है। भ्रस्टाचार शर्म-हया कि सीमायें न जाने कब का लाँघ चुका है। समाजवाद के झंडाबरदार और सार्वजनिक क्षेत्र के पैरोकार न जाने कब होश में आयेंगे?
लेकिन दुःख पानेवाली जनता के बारे में सहानुभूति कि जरूरत भी नहीं है। लफंगों को प्रतिनिधि चुननेवाली जनता को सजा तो मिलनी ही चाहिए।
भोगिये श्रीमन, अभी तो शुरुआत है। आगे बहुत कुछ होना बाकी है।
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